Wednesday, July 10, 2013

मुझे धर्म से, किसी भी धर्म से कोई परहेज़ नहीं पर धर्मान्धता से जरुर जरुर है- ज़ारा अकरम खान

पिछले कुछ दिनों से फेसबुक पर आस्तिकता और नास्तिकता की बहस को फॉलो कर रही हूँ । बहसबाजी का मौसम उफान पर है । दोनों तरफ से भारी भारी दलीले देकर साबित किया जा रहा है की कैसे उन्हीं का पक्ष सही है । आस्तिकों को शिकायत है की नास्तिक वर्ग उनकी आस्था का मखौल तो उड़ाता ही है साथ ही धर्म को मानने वाले हर व्यक्ती को और धर्म को गालिया देना इन्होने अपना ‘धर्म’ बना रखा है । नास्तिकों को ऐतराज़ है की धर्म ने और उसके मानने वालों ने दुनिया में इंसानियत के पनपने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी । धर्म हर बंटवारे का मूल कारण साबित होता जा रहा है । शिकायते दोनों तरफ है, और कुछ तो सौ फीसदी जायज़ भी है । इस विषय पर बहोत ही काबिल और गुणी लोगों ने अपनी बात तर्कपूर्ण रूप से कही है । उनमे से किसी की भी बात को ना काटते हुए मैं अपनी बात कहना चाहूंगी ।
मेरा अपना ये मानना है की आस्था इंसान की पहचान नहीं जरुरत हैं । और इसीलिए इंसान की मजबूरी भी है ।
फरेब,हक-तलफी,नाइंसाफी और धोखाधड़ी से भरी इस दुनिया में आम आदमी तूफ़ान में फंसी नौका की तरह बेबस और लाचार है । सिस्टम से लड़ने का हौंसला नहीं, नाइंसाफियों के खिलाफ उठ खड़े होने की हैसियत नहीं और नित नई समस्याओं से जूझने की कूवत नहीं । ऐसे हालातों में सर्वाइव करना कोई मजाक नहीं । फिर भी इंसान सर्वाइव करता है । और हसते मुस्कुराते हुए करता है । क्यूँ....? क्यूँ की उसके पास आस्था है । किसी ईश्वरीय शक्ति के मौजूद होने का विश्वास ही उसके लिए सुकूनभरा है । जब बुरी तरह से सताया गया आदमी हालातों से हार जाता है तो मन के किसी कोने में उसे ये विश्वास जरुर होता है की एक ना एक दिन मेरी दुआए जरुर कबूल होंगी । एक ना एक दिन मुझे इन्साफ जरुर मिलेगा । अगर ये विश्वास ही ख़तम हो जाए तो इंसानी ज़िन्दगी में कुछ न बचा ! इसी विश्वास के सहारे वो मुश्किल से मुश्किल हालातों में से भी फीनिक्स की तरह परवाज़ करने का मंसूबा पालता है । किसी अदृश्य ताकत के हमारी ज़िन्दगी में मौजूद होने की कल्पना बड़ी सुखद और दिलासा देने वाली है । इंसान कदम कदम पर गलतिया करता रहता है पर जब उन गलतियों की स्वीकारोक्ति की नौबत आती है तो ये कहके खुद को आज़ाद करा लेता है की उपरवाले की यही मर्ज़ी थी । अपनी गलतियों को पीछे छोड कर आगे बढ़ने के लिए भी इंसान को ईश्वर के नाम की जरुरत है ।
आये दिन दुनिया में हैवानियत का नंगा नाच होता है, मासूमों के खून की होली खेली जाती है, नाइंसाफी के नए नए कीर्तिमान रचे जाते है । ऐसे हर घृणित कार्य को देखकर आम आदमी---कमज़ोर,मजबूर,लाचार आम आदमी---यही सोचता है की ऐसे कामों के लिए जिम्मेदार लोगों को अल्लाह/भगवान/गॉड सज़ा देगा । क्यूँ की दुनिया में तो इन्साफ नाम की चीज़ बची नहीं । वो सोचता है की ईश्वरीय शक्ति ऐसे लोगों का लेजर अकाउंट मेनटेन कर रही होगी और उनके लिए कोई सज़ा जरुर जरुर तजवीज करेगी । इसी तरह दुनिया में ऐसे लोग भी है जो बिना किसी वजह के अज़ाब भरी ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त है । असाध्य रोगों के रोगी, अपंगता के शिकार लोग, समाज के सबसे निचले तबके के लोग । उनके बारे में भी यही सोचा जाता है की एक ना एक दिन इनके दुखों के अंत जरुर होगा । सबकी सुध रखने वाला वो परम दयालु परमात्मा सबके साथ इन्साफ करेगा ।
जरा सोचिये, अगर ये विश्वास ही ख़त्म हो जाए तो फिर...! इसका मतलब तो ये हुआ की दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है सब ठीक है । मदर टेरेसा और हिटलर एक ही श्रेणी में...। किसी बिन लादेन को कोई सज़ा नहीं मिलेगी । दहशतगर्दों की करतूत का कोई जवाब नहीं माँगा जाएगा । जिंदगीभर अनगिनत दुखों की सलीब ढोने वाले लोगों को कोई सुकून का लम्हा मयस्सर नहीं होगा । जालिम का जुल्म बदस्तूर जारी रहेगा । दबा कुचला आदमी अपनी निकृष्टतम ज़िन्दगी घसीटता हुआ जीता रहेगा और एक दिन मर भी जाएगा । कोई खुदाई इन्साफ नहीं होगा । किसी उम्मीद की किरण का कोई अस्तित्व नहीं होगा ।
और साहेबान, ईश्वरीय न्याय की उम्मीद के बगैर आदमी जीते जी मर जाएगा ।
इसीलिए आस्था का होना जरुरी हैं । आस्था वो दिया है जो घुप्प अँधेरे में भी राह पाने की उम्मीद को जिंदा रखता है ।

जाते जाते ये बताती चलूँ की मैं आस्तिक हूँ । मेरा सृष्टि के सृजनकर्ता में पूरा पूरा विश्वास हैं ।
और ये भी बता देना प्रासंगिक होगा की,
मुझे धर्म से, किसी भी धर्म से कोई परहेज़ नहीं पर धर्मान्धता से जरुर जरुर है ।