मित्रो वक़्त भी जो निकलने का नाम नहीं लेता, माफ़ी कहूँ तो भी शायद कम ही होगा। आप सब से मुखातिब नहीं हों पाता हूँ। आज इक लम्बे अंतराल के बाद अपने अज़ीज़ मित्र और हमारे साथी सम्पादक दीपक चौरसिया "मशाल" साहब की इक सुन्दर रचना से रूबरू करा रहा हूँ, उम्मीद है आप जरुर पसंद करेंगे। और हमें अपने कीमती प्रतिक्रियायों से भी नवाजेंगे। वो नज़्म कुछ यूँ मुखातिब है आपसे-
डर चाहे पूरब के हों
या पश्चिम का
एक जैसे होते हैं
उनमे होता है आपस में कोई
खून का रिश्ता
तभी वो उभारते हैं
एक जैसी लम्बी लकीरें माथों पर
एक जैसा देते हैं आकार आँखों को
पप्पू, पोम, रेबेका या नाजिया की तरह
उनके नाम भले उन्हें अलग पहिचान दें
लेकिन उनका रहन-सहन, बोल-चाल
चाल-ढाल होते हैं एक से
और एक जैसा ही होता है
दिलों में उनके घर करने का तरीका
तरीका उनके रौंगटे खड़े करने का
धडकनें बढ़ाने का
उन्हें जनने वालीं परिस्थितियाँ
भले अलग हों
पर उनके चेहरे मिलते हैं बहुत
इसीलिए
डर चाहे पूरब के हों
या पश्चिम का
एक जैसे होते हैं
- दीपक चौरसिया "मशाल"
डर चाहे पूरब के हों
या पश्चिम का
एक जैसे होते हैं
उनमे होता है आपस में कोई
खून का रिश्ता
तभी वो उभारते हैं
एक जैसी लम्बी लकीरें माथों पर
एक जैसा देते हैं आकार आँखों को
पप्पू, पोम, रेबेका या नाजिया की तरह
उनके नाम भले उन्हें अलग पहिचान दें
लेकिन उनका रहन-सहन, बोल-चाल
चाल-ढाल होते हैं एक से
और एक जैसा ही होता है
दिलों में उनके घर करने का तरीका
तरीका उनके रौंगटे खड़े करने का
धडकनें बढ़ाने का
उन्हें जनने वालीं परिस्थितियाँ
भले अलग हों
पर उनके चेहरे मिलते हैं बहुत
इसीलिए
डर चाहे पूरब के हों
या पश्चिम का
एक जैसे होते हैं
- दीपक चौरसिया "मशाल"