बहुत दिनों से अपने आप को रोकने की कोशिश में लगा था कि जैसा चल रहा है चलने दो दुनिया के अन्य विभागों की तरह यहाँ ब्लॉग विभाग में भी हर तरह के लोग हैं उन्हें झेलना ही पड़ता है और यहाँ भी झेलना पड़ेगा. लेकिन अबअपनी ही लिखी एक कविता की पंक्तियाँ-''के हदें हदों की ख़त्म हुईं.. देखो अब धैर्य भी छलका है.खूंखार हुए कौरव के शर.. गांडीव तेरा क्यों हल्का है.''याद आने लगीं हैं. देखा जाए तो दोनों पक्षों से ही ये अनर्गल वार्तालाप हो रहे हैं लेकिन जब से इस ब्लॉगवुड में अनवर ज़माल और सलीम खान जैसे लोग आये हैं तब से तनाव जैसी स्थिति बढ़ती ही जा रही है. इनकी बकवास और बेहूदा तर्कों से तो यही साबित होता है. आज की तारीख में सलीम खान और अनवर जमाल से देश की अखंडता, सांप्रदायिक सद्भावना और अमन, चैन को जितना खतरा है उतना ही ब्लोगवाणी या दूसरे अन्य संकलकों को भी. क्योंकि यदि निकट भविष्य में इनके ज़हरीले और बेसिर-पैर के विश्लेषण से दंगा-फसाद की स्थिति बनती है तो कानून के हाथों द्वारा कॉलर इन एग्रीगेटर की भी पकड़ी जाएगी.
ना तो इन धार्मिक अनपढ़ों को कुरआन का क आता है और ना वेद का व लेकिन फिर भी ये स्वघोषित विद्वान बने हुए हैं. सिर्फ अनुवाद की भाषा समझते हैं मर्म की नहीं, संवेदना की नहीं. ऊपर से इनके ५-६ चमचे जो कि बिलकुल धर्मांध और मुस्लिम समाज के नाम पर कलंक हैं बराबर इनको पीछे से समर्थन दे रहे हैं. वैसे इन शैतानों की संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन अपने लिए इन्होने कई हिन्दू और मुस्लिम नामों से फर्जी आई.डी. बना रखी हैं. पता नहीं ये सब जग ज़ाहिर होने के बाद भी ये संकलक क्यों इन आस्तीन के साँपों को प्रश्रय दिए हुए है, क्यों भीष्म की तरह चुपचाप तमाशा देख रहे हैं.कभी ये इस्लाम के सन्देश को अपने हिसाब से बदल कर लोगों के सामने रखते हैं तो कभी वेदों और पुराणों को झुठलाने में लगे रहते हैं.. जिन पुस्तकों ने भारत को विश्वगुरु की पदवीं दिलाई उसे ये कल के चूहे झूठ, अनाचार और कदाचार का पुलिंदा साबित करने में लगे हैं. अभी कुछ दिन पहले ही धर्म-परिवर्तन को ही लक्ष्य बना रखा है और लोगों के सामने उन घटनाओं का बार-बार ज़िक्र कर रहे हैं जो किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को भड़का कर गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर सकती हैं. बड़ी लागलपेट के साथ उन लोगों के तथाकथित साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके होने ना होने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता.
किस की दुहाई दे रहे हैं ये लोग? किसके नाम से डरा रहे हैं? अल्लाह के ईश्वर के या भगवान् के? अरे बेवकूफों वो रहीम है, वो करीम है, वो भगवान् है, दया सागर है, कृपाला हैं. तुम्हें क्या लगता है एक मंदिर या मस्जिद तोड़ देने से वो अपना कहर बरपायेगा? वो सिर्फ ये सब देख कर कहीं बैठ कर हंसेगा कि ''बच्चों!! तुम एक इमारत तोड़ कर समझते हो कि मेरा नाम मिट जाएगा? अरे तुम सम्पूर्ण पृथ्वी, इस सृष्टि को भी मिटा दोगे तब भी मेरा नाम ना मिटा पाओगे.'' और येही वो खूबी है जो उस सर्वशक्तिमान को इंसानी सोच से अलग करती है. तुमने तो मजाक बना कर रख दिया.. कहते हो उसका कोई रूप नहीं, कोई रंग नहीं... और सिद्ध ये करते हो कि वह हमारी-तुम्हारी तरह सोचता है, बदले लेता है, खुश होता है. अजीब भ्रम में हो.ये अनवर उलटे-सीधे विश्लेषण तो करता ही है लेकिन साथ में यह भी मानने को राज़ी नहीं कि उसका विश्लेषण गलत है और मनगढ़ंत है. आप सबने एक चुटकुला तो सुना ही होगा कि 'एक शराबी से शराब छुड़ाने के लिए किसी महामना ने उसके सामने एक गिलास में शराब डाली और एक कीड़ा डाल दिया, कुछ ही समय में कीड़ा मर गया तो उस शराबी से पूछा कि इससे क्या सबक मिला? तो शराबी बोलता है कि शराब पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं.''
ये इसी तरह की बेअकल सोच वाले लोग हैं.
''शठे शाठ्यम समाचरेत'' का मतलब भी ये मूर्ख के साथ मूर्ख का सा व्यवहार करना चाहिए बताएँगे ना कि दुष्ट के साथ दुष्टता का.
अमित शर्मा ने बहुत कोशिश की इन्हें समझाने की, सतीश सक्सेना जी ने की, एकाध बार मैंने भी की लेकिन ये अपनी आदत से मजबूर हैं. मना कि बहुसंख्यक समुदाय के कुछ लोग भी कभी-कभी इस तरह की अनर्गल और बेहूदा बातें करते हैं लेकिन वो कभी इतने आक्रामक नहीं होते ना ही फर्जी आइ.डी. बना कर किसी को धमकाते या टिप्पणी करते हैं(जैसा कि फिरदौस जी ने बताया).
अरे इतनी सी बात समझ नहीं आती कि यदि यही सर्वशक्तिमान की मर्जी थी जो ये लोग सोच रहे हैं तो सबको एक ही समुदाय में पैदा ना करते? हम कैसे उसकी मर्जी के खिलाफ जा सकते हैं वो तो खुद चाहता है कि विभिन्न तरीकों से मुझे याद करो पर करो तो, मुझे याद रखोगे तो मृत्यु का भय रहेगा, मृत्यु का भय रहेगा तो गलत काम नहीं करोगे और अनुशासन में रहोगे जिससे कि ये दुनिया जब तक अस्तित्व में रहेगी सुचारू रूप से चलती रहेगी.
बताना जरूरी समझता हूँ कि मेरे जो दो सबसे प्यारे भाई हैं उनके नाम मोहम्मद आज़म और अकबर कादरी हैं और इससे कम से कम मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे पापा के सबसे करीबी दोस्तों में से एक इंतज़ार चचा के साथ हमारे सालों से पारिवारिक सम्बन्ध हैं. आज भी याद है कि हमारे पारिवारिक मित्र और मेरे बाबा के गुरु स्वर्गीय श्री विशाल चच्चा कितने अपनेपन से दिवाली और होली पर कढ़ी-चावल, दाल, पापड़, चीनी और दही बड़े की कलौंजी घर आकर कितने हक से आज्ञा देकर मंगाते और खाते थे और ईद पर टिफिन भरके सिवईयां भेजते थे. नाजिम चच्चा की भैंसों का दूध पी-पीकर हम बड़े हुए लेकिन आज तक किसी ने किसी की आस्था पर चोट नहीं की. रोज़े की नमाज़ मैंने मस्जिद में पढ़ी तो सईद ने वजू बनाने के लिए मेरे हाथों, पैरों पर पानी डाला तो उसने भी देवी मूर्ति विसर्जन पर मेरे साथ प्रसाद बांटने में हाथ बंटाया और ये सब सलीम की तरह किसी अपराधबोध को लेकर नहीं किया बल्कि इंसानियत के धर्म को सबसे बड़ा मान कर किया. ये पोस्ट जिस ब्लॉग पर मैं डाल रहा हूँ वो भी मेरे दोस्त मोहम्मद शाहिद 'अजनबी' और मेरा साझा ब्लॉग है। वैसे कहने की जरूरत नहीं लेकिन जब ब्लॉग जगत में महफूज़ भाई, युनुस खान भाई, फिरदौस जी, शीबा असलम फहमी जी, शहरोज़ साब और कुछ अन्य ब्लोगर जैसे उदाहरण भी हैं तो उनसे कुछ क्यों नहीं सीखा जाता.
अंत में एक बार फिर
ब्लोगवाणी, चिट्ठाजगत और अन्य ब्लोग संकलकों से अनुरोध करूंगा कि ऐसे ब्लोगों को बिलकुल पनाह ना दें जो यहाँ माहौल बिगाड़ने की कोशिश में लगे हैं और यदि कल के दिन मैं भी यही सब करता पाया जाऊं तो बिना समय गंवाए मुझे भी यहाँ से धक्के देकर निकाल दिया जाए.दीपक 'मशाल'
चित्र-गूगल से