Thursday, January 21, 2010

तुम्हें क्या मालूम ये शादी का घर है ?




वो शादी का घर है
वहां बहुत काम है
तुम्हें नहीं मालूम ?
क्या -क्या नहीं लगता
इक शादी का घर बनाने के लिए
कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं
तब जाके कहीं एक बड़ा सा-
नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा
शक्ल अख्तियार करता है
तुम्हें क्या मालूम।
नहीं कटा वक़्त
उठाई कलम लिखने बैठ गए
अच्छे खासे मौजू का बिगड़ने बैठ गए
नहीं कुछ मिला
तो किसी का सुनाने बैठ गए
हद तो तब हों गयी
जब किसी का गुस्सा
किसी और पर उतारने बैठ गए
तुम्हें क्या मालूम ?
बर्तन , जेवर , बेहिसाब पोशाकें
कहाँ -कहाँ से पसंद करनी होती हैं?
नहीं , फब नहीं रहा है
वो देना तो जरा
न जाने ऐसे कितने लफ्ज़
गूंजते ,बस गूंजते रहते हैं
तुम्हें क्या मालूम। 
बस उठायी किताबें पढने लगे
कभी फिजिक्स , तो कभी मेथ्स
नहीं लगा मन
तो अदब उठा लिया
अरे तुम क्या जानो ज़िन्दगी जी के
कभी किताबों और माजी के पन्नों से
बहार निकलो
ज़िन्दगी रंगीन भी है।
तुम पन्ने ही रंगते रह जाओगे
और दूर कहीं आसमानों में
कोई एक अदद ज़िन्दगी बसा लेगा
तुम्हें क्या मालूम। 
तुम्हें क्या मालूम?
होटल का ऑर्डर
खान्शामा का इंतजाम
बाजे वाले का एडवांस
और भी बहुत से
करने होते हैं इंतजाम
शादी का घर है न ?
तुम्हें क्या मालूम। 
वहां तुम सिसकते रहते हों
कभी तड़पते रहते हों
सुना है आजकल बेचैन रहते हों
कुछ नहीं मिलता
तो पागलपन ही करते रहते हों
देखो, तुम खुद ही देखो
वही पुरानी जगह बैठकर
जहाँ सुनाया था हाले दिल
किसी का कभी
शिद्दत से लिखे जा रहे हों
जबकि जानते हों
कोई पढने वाला भी नहीं है तुम्हें
तुम्हें क्या मालूम?
- शाहिद अजनबी




Tuesday, January 12, 2010

तुम अगर साथ दो

अब न जिद यूँ करो ज़िन्दगी
कुछ मेरी भी सुनो ज़िन्दगी

मैं अकेला शराबी नहीं
लड़खड़ा के चलो ज़िन्दगी

मुफलिसों का खुदा है अगर
मुफलिसी में रहो ज़िन्दगी

बात तेरी सुनूंगा नहीं
बात फिर भी कहो ज़िन्दगी

फिर कहाँ है तेरी वो तपिश
अब तलक जिंदा देखो ज़िन्दगी

मौत "दर्शन" डराती नहीं
तुम अगर साथ दो ज़िन्दगी

- दर्पण साह "दर्शन"

Sunday, January 3, 2010

ग़ज़ल


दिल में याद लिए तेरी बैठा हूँ मैं
फ़क़त तसव्वुर में तेरे दुनिया भुलाये बैठा हूँ मैं

खंजर सी तेरी नज़रें वो हुस्न कातिलाना
अंजामे वफ़ा के जख्म लिए बैठा हूँ मैं

इक तबस्सुम की खातिर सौ जिल्लतें सही हैं
उजड़े हुए गुलशन में ख़ार लिए बैठा हूँ मैं

तेरे हुस्न मुजस्सिम को मैं अब कहाँ छिपाऊं
शबे हिज्राँ में दिल चाक किये बैठा हूँ मैं

रहमत का तेरी साइल मगर मुफलिस नहीं हूँ मैं
टूटे हुए पलकों के गौहर लिए बैठा हूँ मैं

कश्ती को पार कर दे ऐ नाखुदा तू मेरी
अताए ग़म का समंदर लिए बैठा हूँ मैं

कहीं शिर्क हों न जाए ऐ आरजुए परस्तिश
तस्वीर तेरी दिल में सजाये बैठा हूँ मैं

कोई उनसे जाके कह दे ये हाले दिल "जलील"
सब कुछ लुटा बर्बाद हुए बैठा हूँ मैं


- अब्दुल जलील