Thursday, October 22, 2009

''व'' अक्षर इतना विनाशकारी क्यों है????

"व" अक्षर इतना विनाशकारी क्यूँ है
क्यूँ इससे मिलते शब्द रोते हैं
वैश्या, विकलांग, विधवा तीनो
दर्द से भरे होते हैं.

वैश्या कोई भी जानम से नही होती
हालत या मजबूरी उससे कोठे पर
ले जाती है., बाँध कर घूँगरू
नाचती है रिज़ाति हैं. छुप कर
आँसू बहती है.
दो प्यार के बोलों को तरस
जाती है,
मौत क़ी दुहाई हर रोज़
खुदा से मांगती

विकलांग कोई भी
मर्ज़ी से नही जानम लेता
फिर क्यूँ सब घृणा से देखते है
उससे भी हक़ है
उतना ही अधिकार है
जितना सब को है.
क्यूँ उससे चार दीवारी तक ही
सिमट कर रखते है
क्या उससे प्यार का हुक़ नही
क्या उसके जज़्बातों में
कमी है-----------
या दुनिया का दिल इतना छोटा है
बताओ यह किसका कसूर है.

विधवा
यह श्राप क़ी तरहा अक्षर है
जिससे भी यह जुड़ जाए
उसकी तो ज़िंदगी लाश है
प्यार तो खोती है मासूम
लोग उसका जीना भी
छीन लेते हैं
सिंगार तो छूट जाता है
उसका निवाला भी छीन लेते हैं
बिस्तर पर पति का साथ छूट
जाता है ------------
कामभक्त बिस्तर भी
छीन लेते हैं

हर ओर विनाश ही मिलता है
व शब्द का कैसा यह विकार है
वैश्या, विकलांग विधवा.
सारे ही इस विनाश का शिकार है

- नीरा

Thursday, October 15, 2009

इस बार दिवाली सूनी सी है,


इस बार दिवाली सूनी सी है,
दिल की उदासी दूनी सी है.
बेटा है परदेस में बैठा,
माँ-बाप की आँख में धूली सी है.
कितने दीप जले आँगन में,
पर अँधेरा फैला था मन में.
इकबार अगर तू आ जाता,
हलचल सी हो जाती तन में.
देखो-देखो तो ये बाती,
बुझी-बुझी सी लगती है,
कितनी चीनी पड़ी खीर में,
पर फीकी सी लगती है.
जो नयन हमारे हुए समंदर,
क्या याद तुझे ना आती होगी.
उड़के बादल की कोई टुकडी,
क्या तेरी आँख ना छाती होगी.
तारीखें अब याद कहाँ हैं,
बस ऐसे गिनते हैं दिन.
कितने दिन के गए हुए तुम,
आने में कितने हैं दिन.
दिन गिनते हैं अब तो केवल,
उल्टे अपने जीवन के.
जीते जी इकबार तू आजा,
चाहे ना आना बाद मरन के.
जाने क्यों ये ख्वाब क्यों आया,
के तू लौट के आया है.
शायद उमर का असर भी हमपे,
पागलपन सा छाया है.
सुख से रहो जहाँ भी जाओ,
धन पाओ और नाम कमाओ.
अच्छा है मर जाएँ हम,
इक नया जनम फिर पायें हम,
इतनी है बिनती भगवन से,
हम आयें तेरे बच्चे बन के
हम आयें तेरे बच्चे बन के..

- दीपक 'मशाल'

Monday, October 5, 2009

ब्लोगिंग को देश के लिए अभिशाप बनने से रोकें......

कहानी घर घर की या सास बहु का झगडा देखने के बाद जिस तरह की बातें मध्यम वर्गीय परिवारों की महिलाओं के बीच सुनने को मिलती थीं काफी कुछ वैसी ही बातें आजकल हम ब्लोगर लोग करने लगे हैं। अच्छा लिखने को कुछ रह नहीं गया इसलिए इसके-उसके लिखे में कमियां निकालते हैंतो कभी विवाद पैदा कर देते हैं ऐसी जरा सी बात पे जो की भूल जाने लायक होती है.
बीते कुछ दिनों से ब्लॉगर समाज ठीक वैसी ही हरकतें करने लगा है जैसी की न्यूज़ चैनल वाले करते हैं या किसी उत्पाद को बिकाऊ बनाने के लिए उसके विज्ञापन को बनाने वाले यानि बेसिर-पैर की बकवास, और ये सब किसलिए? सिर्फ इसलिए की किसी भी तरह टी.आर.पी. बढ़े उनके ब्लॉग की और जय राम जी की. कोई हिन्दू-मुस्लिम लड़कियों की इज्ज़त उतारने में लगा है तो कोई किसी के ब्लॉग में झांक कर अपने लिए अच्छा बुरा पाकर उस पर ही सबका ध्यान खींचने के लिए चिल्लाने लगता है, आखिर क्यों हम सब अपने उद्देश्य से भटक रहे हैं या फिर ये कहें की उद्देश्य ही गलत बना के ब्लॉग्गिंग के लिए आये हैं. सबसे दुखद तो तब लगता है की इन टिप्पणियों की माया के वशीभूत होकर के उम्रदराज़ शख्स भी ऐसी ओछी हरकत कर जाते हैं, जो लोगों को सीख देने की उम्र में पहुँच गए हैं वे स्वयं बच्चों की तरह नासमझ काम करते हैं. अगर ऐसी सस्ती और घटिया लोकप्रियता का इतना ही शौक है तो किसी क्रिकेट मैच या फुटबॉल मैच के बीच में निर्वस्त्र होके दौड़ जाइये या किसी को भरी सभा में जूते मार दीजिये. ऐसे थोड़े न होता है की आप दूसरों की लाश पे चढ़ कर या उसे बेईज्ज़त कर के अपना नाम चमकाना चाहते हैं. कोई कभी बकवास करके ब्लोग्वानी बंद करवा देता है, कोई ज्योतिष और साइंस के झगडे को ब्लॉग पे ले आता है तो कोई आर एस एस और विश्व हिन्दू परिषद् का नाम लेके टिप्पणियां बटोरता है, कोई सेक्स का नाम लेके अपना ब्लॉग चमकाता है, कोई ब्लॉग चमकाने के फंडे ही बता डालता है, कोई अपने ब्लॉग पर आये टिप्पणीकारों का परिचय या उनकी संख्या दर्शाता है तो कोई इससे भी बड़े कारनामे करता है. हिन्दू-मुस्लिमों के बीच की दरार नहीं भर सकते तो रहने दें लेकिन कम से कम उस दरार को अपने ब्लॉग को चमकाने की छोटी सी कीमत पे चौडी तो न करें, नए गोधरा के बीज तो न डालें. मेरी समझ से बाहर है की इंसानियत की बात करने वाला हिन्दू या मुस्लमान या सिख या इसाई अगर हिंसा की बात न करे तो क्या वो हिन्जडा हो जाता है? माना हिन्दुओं पे ज़ुल्म हुए, तो क्या मुसलमानों पे नहीं हुए या अगर मुसलमानों पे हुए तो क्या हिन्दुओं पे नहीं हुए, हमने सब देख लिया सब सह लिया लेकिन ये नहीं समझ पाए की ये ज़ुल्म इंसानों पे हुए, काश हम परिंदे होते तो ये बात अच्छे से समझ सकते थे. हम लोग भी उन नेताओं की तरह बकवास करने लगे हैं जो वोट के लिए अपने मजहब, माँ, बहिन को बेच देते हैं अरे भाई फर्क क्या रह गया हम में और उनमे? अरे मुझे कोई आगे आके एक ऐसा नेता बता दे जो सच्चे दिल से हिन्दू या मुस्लिम हित की बात करता हो.... आज के युग में कोई महाराज विक्रमादित्य की तरह प्रजापालक नहीं.
याद रहे की विवादस्पद बात कहके आप कुछ लोगों के बीच कुछ समय तक लोकप्रिय हो सकते हैं लेकिन एक सम्मानित बुद्धिजीवी(तथाकथित बुद्धिजीवी नहीं) समाज के बीच स्थान बनाने के लिए निरंतर सार्थक प्रयास करने होते हैं, कहते हैं की गद्दी(हथेली) पर आम नहीं जमता. इसलिए नवोदित अभिनेत्रिओं की तरह की हरकतें आपको शोभा नहीं देतीं. क्योंकि आपकी कला ही आपको लम्बे समय तक लोगों के दिल और दिमाग में जगह दिला सकती है, क्षणिक लोकप्रियता किस काम की? और वैसे भी लोग आपका सिर्फ नाम ही जान रहे हैं न, सिर्फ नाम कमाने के लिए इतनी अशोभनीय हरकतें. अल्लाह/ god / वाहेगुरु/ भगवान न करे की इन ब्लोगों पर की गयी ऐसी कोई बात किसी जाति या धर्म विशेष को इतनी बुरी लगे की फिर कोई दंगा भड़क जाये इसलिए मेरा करबद्ध निवेदन है आप सभी से की सोच समझ कर और एक जिम्मेवार नागरिक की भांति अपनी नैतिक जिम्मेवारी को स्वीकार कर, समझते हुए स्वस्थ लेख लिखें.
कहा गया है की 'उनको न सराहो जो अनैतिक तरीकों से धन या लोकप्रियता अर्जित करते हैं, उनसे बेहतर तो वो हैं जो गुमनाम जिंदगी जीते हैं, किसी का भला न सही किसी का नुक्सान तो नहीं करते'. यह कथन आज के ब्लॉग्गिंग समाज पर भी लागू होता है. क्यों भूलते है हम सभी की ये सब हम अपनी नहीं हिन्दी की खातिर और एक स्वच्छ समाज के निर्माण की खातिर कर रहे हैं.
अंत में आप सबसे यही आग्रह है की इसे भी सस्ती लोकप्रियता पाने का या कमेन्ट ओअने का प्रपंच न समझें और उचित होगा की क्रप्या मेरी बात को समझें तो लेकिन टिपण्णी न करें. टिपण्णी करना है तो कविता, कहानी, ग़ज़ल या किसी अच्छे विचार पर करें.
इसलिए कृपया टिप्पणियों की प्यास में किसी की इज्ज़त की बलि न चढाएं.....ब्लॉग्गिंग पे काला धब्बा न लगायें. ब्लोगिंग को देश के लिए अभिशाप बनने से रोकें.

-दीपक 'मशाल'

Thursday, October 1, 2009

ग़ज़ल



शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है ,
नदी दम तोड़ बैठी तषनगी से
समंदर बारिशों में भीगता है,
कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है,
सभी के ख़ून में ग़ैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है,
जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है,
चलो हम भी किनारे बैठ जायें
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है। 
- जतिंदर 'परवाज़'
छायांकन- दीपक 'मशाल'