Wednesday, August 26, 2009

ग़ज़ल


आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं
गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं
कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंत्र जादू-टोना ठीक नहीं
अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं
मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’
माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं।
जनाब जतिंदर 'परवाज़'
चित्रांकन - दीपक 'मशाल'
महत्वपूर्ण सूचना- ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, बस जाने से पहले एक गुजारिश है साहब की
'कुछ तो कहते जाइये जो याद आप हमको भी रहें, अच्छा नहीं तो बुरा सही पर कुछ तो लिखते जाइये। (टिप्पणी)

Tuesday, August 25, 2009

ग़ज़ल


कोई इक खूबसूरत, गुनगुनाता गीत बन जाऊँ ।
मेरी किस्मत कहाँ ऐसी, कि तेरा मीत बन जाऊँ॥

तेरे न मुस्कुराने से, यहाँ खामोश है महफ़िल।
मेरी वीरान है फितरत, मैं कैसे प्रीत बन जाऊँ।।

तेरे आने से आती है, ईद मेरी औ दीवाली।
तेरी दीवाली का मैं भी, कोई एक दीप बन जाऊँ।।

लहू-ए-जिस्म का इक-इक, क़तरा तेरा है अब।
सिर्फ इतनी रज़ा दे दे, मैं तुझपे जीत बन जाऊँ।।

नाम मेरा भी शामिल हो, जो चर्चा इश्क का आये।
जो सदियों तक जहाँ माने, मैं ऐसी रीत बन जाऊँ।।

मुझसे देखे नहीं जाते, तेरे झुलसे हुए आँसू।
मेरी फरियाद है मौला, मैं मौसम शीत बन जाऊँ।।

कहाँ जाये खफा होके, 'मशाल' तेरे आँगन से।
कोई ऐसी दवा दे दे, कि बस अतीत बन जाऊँ।।

दीपक 'मशाल'
महत्वपूर्ण सूचना- ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, बस जाने से पहले एक गुजारिश है साहब की
'कुछ तो कहते जाइये जो याद आप हमको भी रहें, अच्छा नहीं तो बुरा सही पर कुछ तो लिखते जाइये। (टिप्पणी)

Monday, August 24, 2009

माटी मेरे देश की


शत्रुओं को सदा मुँहतोड़ देती है जवाब
किन्तु मित्र की है मित्र माटी मेरे देश
की भारत की रक्षा करें मौत से कभी न डरें
ऐसे देती है चरित्र माटी मेरे देश की
शौर्य की भी जननी है शान्ति की भी अग्रदूत
सचमुच है विचित्र माटी मेरे देश की
सीने से लगाओ चाहो माथे से करो तिलक
चंदन से भी पवित्र माटी मेरे देश की

माँ समान ममता की छाँव देती है सभी को
बांटती असीम प्यार माटी मेरे देश की
अन्नपूर्णा समान आशीषों से पालती है
स्नेह का है पारावार माटी मेरे देश की
वीरता अखंड बुद्धि बल में प्रचंड और
पापियों पे है प्रहार माटी मेरे देश की
दुष्ट का दमन करे वीरों का सृजन करे
शक्ति स्रोत है अपार माटी मेरे देश की

क्रूर पापी देशद्रोहियों के बाजू बढ़ रहे
सह रही अत्याचार माटी मेरे देश की
काल सम झेलती है देखो आज दिन रात
बम गोली तलवार माटी मेरे देश की
अपनों की गद्दारी से हुई बेबसी में सुनो
युगों युगों से शिकार माटी मेरे देश की
शूरवीरों आगे आओ दुःख धरा का मिटाओ
आज करती पुकार माटी मेरे देश की

अरुण 'अद्भुत'

Saturday, August 22, 2009

बचाव भाग-२

पिछले अंक से आगे पढ़ें....
इस सब के बावजूद निंदिया का विवाह पल्लव अग्रवाल के साथ तय कर दिया गया। जिसे उसकी माता जी स्नेह से लल्लन कहकर पुकारती थीं। लोलुप लल्लन के लार से लिपे होंठ देखकर निंदिया को उल्टी आने लगती। अपने इकलौते बेटे के लिए माता जी को निंदिया इतनी पसंद आई की अपने दो लाख के लल्लन को वह सिर्फ़ पचास हज़ार में बेचने को मान गयीं। माँ और बाबा उनकी इस मेहरबानी पर कुर्बान हो गए। पौने दामों में उन्हें यह सौदा बुरा नहीं लगा। बेटी से पूछने की उन्हें भला क्या आवश्यकता थी? बाबा ने झट से एक सौ एक रुपये थमा कर पल्लव को रोक लिया। माँ ने बाबा की बीमारी और लाचारी की दुहाई देते हुए निंदिया को कमरे में धकेल दिया। नायलोन की एक सदी और कुछ मुसे हुए रुपये गोद में डालते हुए माताजी ने लल्लन को निंदिया के साथ बैठा दिया अब वे चाहें तो आपस में बात कर सकते थे। जैसे ही सब लोग बहार निकले, पसीने से लथपथ लल्लन का हाथ निंदिया के हाथ पर आ टिका। मनो बिच्छू ने डस लिया हो। अपना हाथ पोंछती वह भागी कमरे की ओर। माता जी हो हो कर हंसने लगीं। उन्हें और लल्लन को निंदिया की ये अदा बहुत भाई।

अगले ही दिन निंदिया कॉलेज से लौटी तो देखा बड़ी बुआ माँ के पास बैठी थीं, 'निन्नु देख तो सही बीबी जी तेरे लिए कितनी सुंदर साडियां लेकर आई हैं'। एक नज़र में निंदिया ताड़ गयी की साडियां बुआ के अपने विवाह की रही होंगी। बाबा से पैसे लेकर वह उन्हें अपनी कुछ पुराणी साडियां भेड़ रही थीं। बुआ के जाते ही निंदिया खूब बरसी पर इस बरसात से माँ जरा न भीगीं। साडियां सहेज कर उन्होंने तीन के बड़े वाले ट्रंक में बंद कर दीं। जहाँ उन्होंने पहले से ही कुछ नए कपड़े जमा कर रखे थे, जिनमें से सीलन की गंध आती थी।

स्कूल में निंदिया अपनी कक्षा में सदा प्रथम आती थी। उसने कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया। उसे समझ नहीं आ रहा था क्यों एकाएक वह माँ बाबा पर भरी पड़ने लगी। रूपा के मम्मी पापा तो कभी उसके विवाह की बात तक नहीं करते कम से कम उसे कॉलेज तो ख़त्म कर लेने दें। निंदिया के विद्रोह को माँ ने बाबा तक पहुँचने ही नहीं दिया। उन्हें तो लग रहा था की निन्नु की विवाह की उम्र निकली जा रही थी। यदि इस बरस उसका लगुन न हुआ तो बिरादरी के लोग बातें बनाने लगेंगे कि बेटी में कोई कमी होगी जो अब तक घर में बैठी है। पिंजरा खुला था किंतु पंख फड़फड़ाने के सिवाय निंदिया कुछ नहीं कर पा रही थी।

बिंदास रूपा ने निंदिया को न केवल घर से भाग जाने कि सलाह दी बल्कि उसकी खटाखट तैयारी भी कर दी। चचेरे और ममेरे भाइयों कि लाड़ली रूपा को धन कि कोई कमी नहीं थी. कार और ड्राईवर सदा उसके साथ रहते थे। यदि उसे कोई कमी थी तो वह सिर्फ़ माँ और पिता की, जिनके पास सबकुछ था सिवा समय के और जिसकी कमी वो पूरी करती थी उनके पैसे बर्बाद करके। निंदिया कि माँ के हाथ का भोजन करके रूपा की आँखें भर आतीं। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता।' निंदिया को लगता कि भला रूपा को क्या कमी हो सकती है और रूपा को लगता कि वह अपना सबकुछ न्योछावर कर सकती थी निंदिया के माँ बाबा के सहज, वात्सल्य और रक्षात्मक भाव के लिए। माँ को निंदिया का रूपा से अधिक मेलजोल पसंद न था। उनकी नज़रों में रूपा एक अच्छी लड़की नहीं थी। निंदिया स्वयं भी यही सोचती थी कि रूपा कुछ अधिक ही धृष्ट थी। उचित और अनुचित का अनुपात शायद व्यक्तिगत होता है। जो माँ को अनुचित लगता है, निंदिया को वो उचित लगता है और जो इन दोनों कि नज़रों में अनुचित है वो रूपा के लिए प्राकृतिक है। रूपा का बात बात में गली देकर बात करना, लड़कों के साथ खुलेआम घूमना फिरना, शाम को देर से घर लौटना और अपने मम्मी पापा से जुबान लड़ना आदि निंदिया को अनुचित लगता था किंतु मन ही मन वह चाहती थी कि काश वह भी रूपा जैसी चतुर और चुस्त होती।

निंदिया को अब लग रहा था कि रूपा को अपनी निजी बातें बता कर कहीं उसने गलती तो नहीं कर दी किंतु और कौन था जिसे वह अपनी व्यथा सुनती या जो उसकी मदद करता। कोई और चारा नहीं था।

रूपा कि एक अविवाहित मौसी धीरूबेन पटेल साऊथहॉल के एक महिला संगठन कि अध्यक्ष थीं। निंदिया कि कहानी सुनकर वह उसे अपने पास लन्दन बुलाने को तैयार भी हो गयीं। जैसे तैसे माँ बाबा से चोरी छिपे उसका पासपोर्ट बना एरोफ्लोट से सफर का एक सस्ता टिकट भी ख़रीदा गया और थोड़े बहुत सामान के साथ, जिसे वह चोरी छुपे रूपा के यहाँ इकठ्ठा करती रही थी, निंदिया निकल पड़ी एक अनजानी दिशा कि ओर। लल्लन से छुटकारा पाने कि जिद में वह ये भी भूल गयी कि उसे माँ बाबा को भी छोड़ कर जाना होगा। सोचा था कि शायद माँ कोडी गयी उसके घर से भाग जाने की धमकी काम आ जायेगी किंतु उन्होंने तो बाबा को इस बारे में कुछ बताया तक नहीं। उनमे इतनी हिम्मत कहाँ थी कि वह चूं भी करतीऔर निंदिया तो रूपा के बल पर ही कूंद रही थी। कई बार भयभीत हो उसने अपनी यात्रा रद्द करने कि सोची किंतु रूपा के डर के मारे चुप रही। इसी बीच उसकावीसा भी बन चुका था। इतना पैसा लग चुका था कि अब चाहे भी तो निंदिया पीछे नहीं हट सकती थी। उसने अपने मन को समझा लिया था कि जब बाबा मान जायेंगे तो वह झट से वापिस आ जायेगी उर 'सॉरी' कहते ही सब ठीक हो जाएगा। उधर माँ ने सोचा था कि उनकी लाडली निन्नु झक मार के अंत में करेगी वही जो बाबा कहेंगे।

इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे पर रूपा और उसका ममेरा भाई दिनेश उसे छोड़ने आये थे। निंदिया मुडमुड कर देख रही थी कहीं बाबा उसे जबरदस्ती लेने न आ पहुंचे हों। मन ही मन शायद वह यह चाह भी रही थी कि किसी तरह जाने से उसे रोक लिया जाए। किंतु कोई नहीं आया। उसकी दशा कैंसर के उस मरीज की सी थी जो अब और पीड़ा नहीं सह सकता पर मरना भी नहीं चाहता।

अगली सुबह दिनेश ने जब माँ बाबा को बताया कि उनकी जोर जबरदस्ती से तंग आकर निंदिया भारत छोड़ कर विदेश चली गयी थी तब तक वह लन्दन पहुँच चुकी थी। बाबा चिल्लाते रह गए और फ़ोन रख दिया। वे जानते थे कि इस साजिश के पीछे सिर्फ़ रूपा का ही हाथ हो सकता था किंतु पुलिस से शिकायत करके भी उन्हें क्या हासिल होता। हाँ कुछ दिनों के लिए बाबा ने रूपा का जीना अवश्य हराम कर दिया। उसके माँ बाप को भी गालियाँ दीं, जिन्हें कुछ मालूम तक ना था। बड़े लोगों कि बड़ी बातें, बड़ी व्यस्तताएं, उन्हें कब तक सुनते। उन्होंने पुलिस को बुलवाकर बाबा को घर से बाहर निकलवा दिया। रूपा ने निंदिया का पता फ़िर भी किसी को नहीं बताया। हाँ उसकी माँ से चुपचाप कह दिया कि निंदिया ठीक है और वह उसकी चिंता न करें।

लन्दन पहुँच कर निंदिया ने कई बार वापिस लौटने कि सोची पर माँ ने कभी लिखा ही नहीं कि वह वापिस आ जाए। शायद बाबा ने उसे आज भी माफ़ नहीं किया है। अब वह उन्हें दोष नहीं देती बल्कि जब जब वह उनकी बेबसी के बारे में सोचती है, उसका दिल कुछ ऐसे सिकुड़ जाता है जैसे कोई गीले कपड़े को निचोड़ रहा हो। क्या क्या नहीं भुगता होगा माँ बाबा ने। जवान बेटी के प्रति पड़ोसियों और सम्बन्धियों के कटाक्ष उन्हें आज भी सुनने पड़ रहे होंगे। यूँ तो एक दिन चैन कि नींद न सोई है निंदिया भी। हर रात सहगल कि आवाज़ में बाबा जब गुनगुनाते 'सो जा राजकुमारी सोजा' तो बेटी कि ओर देख माँ आँखों ही आँखों में मुस्कुरा के कहतीं ' लो ये फ़िर शुरू हो गए'। उनकी रोज की बेकार कि नोकझोंक की आदी निंदिया को विदेश की खामोश रातें काटने को दौड़तीं।

निंदिया को जब भी माँ बाबा की याद सताती है तो वह अपनी ऑंखें भींच कर सोफे के बीच की दरार में घुस कर लेट जाती है, तो कभी माँ को लंबा सा एक पत्र लिखती है जिसमे लन्दन की साडी सुविधाओं का वर्णन होता किंतु उन तकलीफों का नहीं जो वह रोज भुगतती है। कबसे उसने माँ के हाथ की असली घी से चुपडी गर्म रोटी नहीं खाई। 'एक और' 'एक और' कह कर माँ उसे गस्से खिलाती थीं। घुटनों में दबाकर हर इतवार को उसके बालों में जबरदस्त नारियल का तेल मलती थीं। बाबा से छिपा छिपा कर उसे रुपये देती थीं की रूपा के आगे कहीं उसकी हेठी न हो जाए। अब तो रोज वही गुजरती भोजन, सुबह शाम टेप पर चलते साईँ बाबा के भजन और उसका बक्सानुमा कमरा, जिसमें की घर जैसा कुछ नहीं। धीरुबें को वह 'मासी' कह कर बुलाती है, हालाँकि 'माँ सी' तो वह बिल्कुल नहीं हैं। जब भी उसे देखती हैं बस टोकती हैं,'बत्ती जल्दी बंद करया कर छोकरी' या 'इलैक्ट्रिक केतली मोंगी छे' या 'गर्मी मा पण गरम पानियाँ स्नान करे छे, छोकरी' या 'सनिवारे साड़ी नि दुकान मा केम न थी करती दिनिया तू' इत्यादि। वह उसे अधिकतर 'दिनिया' कहकर बुलाती हैं और निंदिया उन्हें कभी नहीं टोकती। उसकी अवस्था के मुताबिक 'दिनिया' नाम बड़ा सटीक बैठता है, बिल्कुल उसकी तरह दीनहीन।

निंदिया पर रूपा के सैकडों रुपये बकाया हैं। ऐसा नहीं की उसने कभी मांग की हो किंतु एक न एक दिन तो लौटने ही हैं। अच्छा सा एक परदा तक तो वह खरीद नहीं पा रही। न जाने किस ज़माने का एक चीकट प्लास्टिकी परदा उसके कमरे की खिड़की पर लटका है, जो इतना लंबा है की उसके बिस्तर तक आ जाता है। उसे काट कर छोटा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मासी कहती हैं की कभी उन्हें घर बदलना पड़ा और नए घर की खिड़की यदि थोडी सी लम्बी हुई तो ये कटा हुआ परदा बेकार हो जाएगा।

पानी में तेल सी तैरती रहती हैं धीरुबेन साऊथ हॉल में। हालाँकि यहाँ भी उनके ढेर से मित्र हैं पर अब उन्हें लगता है की अपने देश यानि वेम्बली वापस चला जाए जहाँ उनकी गुजरती सहेलियाँ और रिश्तेदार रहते हैं। जहाँ कीआवोहवा में ढोकले, खांडवी और चीवडे की खुशबू आती है। चिकन और मटन खाने वाले पंजाबियों से ऊब चुकी हैं वह अब। सत्तर के दशक में वह साऊथ हॉल निवासी एक पञ्जाबी जवान के प्यार के चक्कर में पड़ गयीं थीं। पहले पहल तो दलवीर ने उन्हें बताया ही नहीं की वह विवाहित था और जब पोल खुली तो सालों इसी आशा में निकल गए की वह पत्नी को तलक देकर उनसे विवाह कर लेगा। एक के बाद एक जब दलवीर के अपनी पत्नी से चार बच्चे हो गए तो एक दिन धीरुबेन को एकाएक होश आया की वह उन्हें बेवकूफ बना रहा था पर वह क्या कर सकती थीं। अधिक पढ़ी लिखी तो थीं नहीं। उन्हें सब्जी फल की एक बड़ी दुकान पर आसानी से काम मिल गया और दिन में वह लगातार अट्ठारह उन्नीस घंटे काम करने लगीं। उनके लिए गम भुलाने का यह सबसे असं तरीका था। मेहनत और ईमानदारी के बल पर उन्हें जल्दी ही मेनेजर बना दिया गया। पाँच साल के भीतर ही उन्होंने अपनी जैसी कई अन्य औरतों के साथ मिलकर 'सहारा महिला संगठन' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था सती गयी अथवा दूसरे देशों से धोखे से लाइ गयी औरतों की सहायता करना। निंदिया ने एक बार धीरुबेन से पूंछा था की साउथ हॉल में बसी भारतीय महिलाओं के साथ भी अत्याचार क्यों होते हैं? उन्होंने जवाब दिया था की भारतीय महिलाएं जहाँ भी जायें रहेंगी तो भारतीय ही न। उन्हें बचपन से घुट्टी पिलाई जाती है चुपचाप सहते रहने की। विदेश में तो बेचारी और भी अकेली पड़ जाती हैं क्योंकि यहाँ उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती। ससुराल वाले उन्हें एक नौकरानी से अधिक नहीं समझते। इनके पति स्थानीय औरतों के साथ मज़े करते हैं और ये बेचारी घर और दुकान को संभालती, गालियाँ और घूंसों की शिकार बनती हैं। बच्चों को छोड़कर जाते भी नहीं बनता और लौटें भी तो वहां कौन बैठा है जो इनकी व्यथा सुनेगा।


Friday, August 21, 2009

बचाव


दोस्तों,
आज मैं एक दिल कि बात कहना चाहता हूँ, मेरा ख्वाब वो ख्वाब है जो शायद हर सच्चे हिन्दुस्तानी के दिल में हो, आँखों में हो और अगर नहीं है तो होना चाहिए. मैं हिंदी को एक बार फिर उस मुकाम पर पहुँचाना चाहता हूँ जिस पर उसे देखने के लिए और दूसरी भाषाओँ को अपनी गर्दन आसमान तक टेढ़ी करनी पड़े. मैं चाहता हूँ की हमारी हिंदी वहां पहुंचे की स्वर्ग में बैठे मिल्टन, चेखव, सेक्सपिअर और खलील जिब्रान इस बात पर अफ़सोस करें की उन्हें हिंदी क्यों नहीं आती थी.
इसी कड़ी में मैं एक ऐसी लेखिका की कहानी से आपका परिचय करा रहा हूँ, जिसमे वो दम-ख़म है जो हमारे इस सपने को हकीक़त में बदल सके.
जो कहानी मैं आपको सौंपने जा रहा हूँ वो एक ऐसी कहानी है जो एक तरफ आपको हंसायेगी तो रुलाएगी भी, बचपन की यादों में व माँ के प्यार में लिपेटेगी तो जीवन की उस सच्चाई से वाकिफ भी कराएगी जो आप जानते तो हैं लेकिन इतने करीब से नहीं, खून में उबाल लाएगी तो आपको अपने समाज पे कहीं न कहीं शर्म करने पे मजबूर भी करेगी, जो आपको ये बोलने पे मजबूर करेगी की प्रलय जायज है अब नवनिर्माण चाहिए. कहानी बड़ी होने की वजह से ४-५ कड़ियों में प्रकाशित होगी. आपका सहयोग अपेक्षित है.(ये कहानी पूर्व में 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है, हम लेखिका के आभारी हैं की उन्होंने हमें इस ब्लॉग पर अपनी कहानी प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की)

निंदिया के बाबा कहा करते थे की दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वे जो पक्षियों की तरह सूरज के उगते ही उठ जाते हैं और दूसरे वे जो उल्लुओं की तरह दिन में भी सोते रहते हैं और भला उल्लुओं से क्या अपेक्षा की जा सकती है. बाबा के ताउम्र डांटने-डपटने के बावजूद वह कभी समय पर नहीं उठ पाई. बचपन से अब तक हर रात सोने से पहले वह अपने से वादा अवश्य करती है की कल से जल्दी उठेगी किंतु हर सुबह 'बस पाँच मिनट और' करते करते देर हो ही जाती है. आज सुबह भी उसकी आँख लगी ही थी की अलार्म बजने लगा. अलार्म को रोकने की चेष्टा में वह सोफे से लुड़क कर नीचे आ गिरी, रजाई, कम्बल और तकिये से जूझते हाथ में आकर भी घड़ी फिसल कर न जाने कहाँ गायब हो गई. मकानमालकिन धीरुबेन कहीं हल्ला ना मचा दें इसलिए किसी तरह अलार्म को बंद करके वह आँखे मलती, गिरती-पड़ती भागी स्नानघर की ओर. मुंह में टूथब्रश ठूंसकर उसने गर्म पानी का नल चलाया ही था कि एक नन्हा सा तिलचट्टा नाली से निकला और नहाने के टब में इधर-उधर भागने लगा, भय टपकता, भयभीत सा. निंदिया ने जल्दी से फुहारे कि तेज़ धार से उसे वापिस पानी में धकेल दिया. शायद तेज़ गर्म पानी ने उसकी जान ले ली हो या फ़िर वह नाली में बहता-बहता कहीं दूर निकल गया हो.निंदिया ने सुन रखा था कि कीडे-मकोडे बहुत सख्त जान होते हैं और तिलचट्टे तो माइक्रोवेव के ताप से भी बच निलकते हैं.

दिनभर दफ्तर में निंदिया रह रह कर यही सोचती रही कि उसे क्या आवश्यकता थी बेचारे तिलचट्टे पर इतना गर्म पानी डालने की. हालाँकि उसने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था. वह सदा पहले गर्म पानी का नल ही खोल्यी है क्योंकि ठंडे पानी का नल पहले खोला जाए तो पानी के तापमान को संतुलित करना कठिन हो जाता है. खैर तिलचट्टे को क्या जरूरत थी निंदिया के टब में प्रकट होने की, वो भी सुबह सुबह. सारा दिन वह घर से बाहर होती है, टब चाहे जहाँ घूमता. निंदिया ने सोचा कि यदि वह तिलचट्टा किसी ब्रिटिश कोर्ट में मुक़दमा दायर कर सकता तो निंदिया को अवश्य जेल हो जाती. हाल ही में उसने एक समाचार सुना था कि घर में घुस आए चोर को जब एक अंग्रेज़ गृहस्वामी ने गोली चलाकर घायल कर दिया तो चोर ने उसपर मुक़दमा दायर कर दिया. जज का फ़ैसला था उसे चोर को घायल नहीं करना चाहिए था. पिस्तौल दिखाकर धमकाने भर से कम चलाया जा सकता था. अंग्रेज़ के पक्ष में बहुत से लोग थे जिनका मानना था कि गृहस्वामी को इतना तो हक होना ही चाहिए कि अपने बचाव में वह चोर के साथ जैसा चाहे सुलूक करे. निंदिया को लगा कि जब मुसीबत सर पे खड़ी हो तो कोई क्या सोचेगा कि अपराधी को कितनी मात्रा में घायल किया जाए. उसने कई बॉलीवुड फिल्मों में देखा है कि नायिका पिस्तौल या चाकू थामे अपराधी को धमकती तो है पर डर के मरे हमला नहीं कर पाती. इसी बीच अपराधी उसके हाथ से पिस्तौल छीन लेता है और हो जाता है नायिका का राम नम सत्य. कितनी कोफ्त होती है उसे ऐसे दृश्य देखकर कि पूछो नहीं. किसी के घर में चोर चोर घुस आए, उसे और उसके परिवार को आतंकित करे तो भी उसे इतनी सज़ा नहीं मिलेगी जितनी कि गृहस्वामी को यहाँ एक चोर को घायल करने पर मिलती है. यह इंग्लैंड है.

हाँ ये इंग्लैंड है. सालों से निंदिया यहीं बसने के लिए हाथ-पैर मार रही है. उसके पासपोर्ट पर होम ऑफिस वालों ने ठप्पा लगा दिया है कि वह केवल अंतर्राष्ट्रीय कार्यालयों अथवा दूतावासों में ही सेवा कर सकती है. इस प्रतिबन्ध के रहते उसे कोई अच्छी नौकरी तो नहीं मिल पी, किंतु पिछले पांच वर्षों के भीतर ही वह उन कार्यालयों के सारे रहस्य अवश्य जान गई. अल्पवेतन के एवज में निंदिया जैसे लोगों को ये कार्यालय नौकरी तो अवश्य देते हैं किंतु अपेक्षित सेवाएँ नहीं देते और ना ही समय पर उनका वेतन बढाते हैं. ब्रिटिश सरकार के अधीन ना होने के कारण इनपर ना तो कोई मुक़दमा चला सकता है और ना ही इनकी कहीं शिकायत कर सकता है. जहाँ एक तरफ़ नौकरी से निकाल दिए जाने के भय से ये कर्मचारी चुप रहते हैं वहीँ दूसरी तरफ़ अधिकारीगण उनकी इस मजबूरी का नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं. निंदिया जैसे कई हताश लोग कीडों कि तरह रोज़ बहा दिए जाते हैं और अपने बचाव के लिए वे कुछ नहीं कर सकते. निंदिया के मामले में भी लौट के बुद्धू घर को आए वाली कहावत कहीं सिद्ध ही ना हो जाए. किस मुंह से वह घर से वापस जाए. कुछ पैसा बना के लौटने का सपना तो उसे सच होता नज़र नहीं आता और लौटी भी तो वहां कौन सी नौकरी मिल ही जायेगी. परिवार और रिश्तेदारों के ताने अलग सुनने को मिलेंगे. यहाँ जिस हल में भी है, भरपेट खाना तो मिल ही रहा है. अच्छी आबोहवा में रह रही है और सबसे बड़ी बात ये है कि घूमने फिरने कि आज़ादी है, उसे कोई जबरदस्ती शादी के लिए तो दिक् नहीं कर रहा.

निंदिया कि सहेली मेनका एक दूतावास में काम करती है. उसके साथ कार्यरत कई कर्मचारी बीस और तीस साल से उसी दूतावास में टिके हैं. दस या पन्द्रह पौंड सालाना वृद्धि के अतिरिक्त उन्हें कोई अन्य सुविधा नहीं मिलती. वेतन टैक्स रहित होने कि वजह से महीने का खर्चा बस पूरा हो जाता है. कुछ बचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. अच्छे खासे पढ़ेलिखे योग्य लोग एकबार यदि इस जंजाल में फंस गए तो समझिये कि चौदह वर्ष के लिए ये गए काम से. हाँ इतने ही बरस लगते हैं पासपोर्ट से ठप्पा हटने में. ठप्पा हटने के बाद वे किसी योग्य नहीं रह जाते. परिस्तिथियों से लड़ते लड़ते उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है, आत्मविश्वास काम हो जाता है और एक ही ढर्रे पर चलने कि उन्हें आदत हो जाती है. नहीं नहीं निदिया अपने साथ एस कदापि नहीं होने देगी. उसे जल्दी ही अपने पाँव पे खड़ा होना होगा और माँ बाबा को बनकर दिखाना होगा. बात बात में जो माँ कहती रहती हैं, 'बेटा होता तो और बात थी.' उसे सिद्ध करना होगा कि वह किसी बेटे से कम नहीं.

एक ऐसी ही अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में लिपिक कि एक स्थाई पोस्ट के लिए निंदिया ने आवेदन पत्र दिया था. सबसे अच्छा टेस्ट करने के बावजूद एक राजदूत कि बेटी सुमति सुब्रमण्यम का चयन कर लिया गया था. निंदिया कई हफ्तों तक हताश औउर उदास रही. दोस्ती का हाथ बढाते हुए एक प्रशासनिक अधिकारी कोडनानी ने कंधे उचकाकर अपनी मजबूरी जाहिर की तो निंदिया ने सोचा की चलो कुछ और ना सही तो इस दौरान हुई कोडनानी से उसकी मित्रता काम आयेगी. इन दफ्तरों में बिना जन पहिचान के कुछ नहीं होता और हुआ भी वही. चाहे तीन महीनके लिए ही सही निंदिया को जल्दी ही उसने अस्थाई लिपिक के तौर पर भरती करवा लिया किसी लोमिना डिसूजा की जगह जो मेटरनिटी लीव पर थी. जब छुट्टी समाप्त होने को आई तो कोडनानी ने लोमिना को छुट्टी बधन एकी सलाह दी जिसे उसने कृतज्ञता पूर्वक मान लिया. नवजात शिशु को भला वह कहाँ छोड़ती, 'ओपेयर' यहाँ इतनी महंगी हैं की बच्चे को किसी के पास दिनभर छोड़ने की वह सोच भी नहीं सकती थी. तीन महीनों की मोहलत और मिल गई थी निंदिया को. इसी बीच आपूर्ति विभाग में कोई लम्बी छुट्टी पर गया तो उसका स्थानांतरण वहां कर दिया गया. एक साल होते होते वह दफ्तर के सभी विभागों में घूम चुकी थी. वित्त विभाग में कहीं उसे ठौर मिला तो उसे लगा की अब उसे अवश्य स्थाई कर दिया जाएगा. हालाँकि उसकी तनख्वाह और काम हो गयी थी क्योंकि अब वह क्लर्क की पोस्ट पर थी. हर महीने मुश्किल से उसे सादे तीनसौ पौंड मिलते थे. जिसमे से वह सौ पौंड किराये के दे देती थी. सौ पौंड खाने पीने और रेल/बस के किराये आदि पर खर्च हो जाते थे. सप्ताह में तीन दिन वह आशुलिपि की कक्षा में जाती थी, जिसके लिए उसे पचास पौंड अलग से देने पड़ते थे पर उसे विश्वास था कि एक ना एक दिन उसे लिपिक की पोस्ट पर अवश्य रख लिया जाएगा. लिपिक का वेतन पचास पौंड अधिक था और एक साल में वह छै सौ पौंड जमा करके माँ बाबा को भेज कर चकित कर देना चाहती थी. एक साल में बीस हज़ार रुपये तो बाबा ने भी कभी नहीं कमाए होंगे.

शाम को जब घर लौटी तो मेज़ पर निंदिया को रूपा शाह का पत्र रखा मिला. उसकी अन्तरंग और धनि सहेली रूपा एकमात्र कड़ी थी जिससे जुड़ा था निंदिया का अतीत. ना जाने कब तक वह बस खड़ी रही पत्र को हाथों में संभाले. शायद इसबार माँ ने कुछ लिखवाया हो. किंतु माँओं की चिन्ताएं किसी और किस्म की होती होंगी क्योंकि निंदिया की चिंता औउर दुःख तो माँ ने कभी समझा ही नहीं. हालाँकि समझ के वह कर भी क्या सकती थी, पति के आगे उनकी एक ना चलती थी. लाड़ प्यार से पाली बेटी एकाएक उनकी जान पे बन आई थी. रुई के फाहे में रख कर पला था माँ ने उसे. सदी गर्मी में भी वह उसे गुनगुने पानी में नहलाती थीं की उनकी निन्नु को कहीं ठण्ड न लग जाए. पति से अनुनय विनय कर उन्होंने उसका दाखिला लेडी अर्विन स्कूल में करवाया था. बाबा कितना भुनभुनाये थे प्राइवेट स्कूल में पढ़ा के क्या बेटी से नौकरी करवानी है? पर माँ ने जब उनसे कहा की आजकल अच्छे स्कूलों में पढ़ी लिखी लड़कियों को ही अच्छ्हे घर वर मिलते हैं तो वह मान गए थे.

माँ से बारह साल बड़े थे बाबा. जहाँ माँ अपनी उम्र से छोटी दिखती वही बाबा कहीं बूढे. निंदिया ने बाबा को कभी मुस्कुराते नहीं देखा. उनका एक ढर्रा बंधा था,जिससे वह एक इंच भी इधर से उधर नहीं होते थे. नहाने और पूजा में ही उन्हें डेढ़ एक घंटा लग जाता था. माँ पूजा पथ नहीं करती थी किंतु दौड़ दौड़ कर बाबा के लिए पूजा की तयारी बड़ी मुस्तैदी से करती थीं. सुबह आठ बजे खाना खाकर घर से निकले बाबा रात के नौ बजे लौटते थे, थके और क्लांत. ओवरटाइम करके दहेज़ के लिए पैसा इकठ्ठा करने के अलावा उनका जीवन में शायद कोई उद्देश्य ना था. काश की निंदिया माँ बाबा जैसी होती. किंतु उसकी ख्वाहिशों का तो कोई ठिकाना ही ना था. इन ख्वाहिशों से उसका परिचय कराया था रूपा ने, कारों में घुमा कर, फिल्में दिखाकर, पौश भोजन्ग्रहों में खाना खिलाकर. घर वापस लौटती तो उसे लगता की किसी झोपडी में आ गई हो जहाँ वह केवल सपने भर देख सकती थी. हैरानी तो उसे टब होती जब वह रूपा को भी सपने देखते सुनती. भला उसे क्या कमी. किंतु 'कमी' भी एक अजीब चीज है, जिसकी कमी शायद सबको खलती है.

माँ बाबा दोनों की आशाओं पर पानी फ़िर गया था. घर में सुंदर और पढ़ी लिखी कन्या होने के बावजूद दो ढाई लाख से काम पर कोई राजी नहीं था. अब उन्हें लग रहा था की जो पैसा उसकी शिक्षा पर खर्च हुआ था वो दहेज़ पर काम आ सकता था. विवाह पर एक डेढ़ लाख का खर्च अलग होना था जबकि गहनों पर एक भी पैसा खर्च नहीं किया जानाथा. माँ के गहनों को साफ़ करा लिया गया था. बाबा ने समाचार पत्रों में से कोई बीस विज्ञापन चुने थे किंतु किसी एक का भी जवाब नहीं आया था.

राम राम करके मथुरा के एक अग्रवाल परिवार से रिश्ता आया था. हर सप्ताहांत भैंस सी श्रीमती अग्रवाल अपने केंचुए से गिलगिले बेटे पल्लव को लेकर उनके यहाँ आ टिकतीं. लिसलिसे प्रश्न पूछ पूछ कर उसे हैरान और परेशां करतीं, माहवारी कब हुई थी? समय पर होती है की नहीं? कालेज में कोई बॉयफ्रेंड तो नहीं है इत्यादि.अगली वर जब निंदिया को माहवारी हुई तो माताजी घर में मौजूद थीं ये देखने को की कहीं वह झूठ तो नहीं कह रही थी. उनका बस चलता तो वह पखाने में घुस कर निंदिया का निरिक्षण कर लेतीं.
( शेष अगली बार )

Wednesday, August 19, 2009

गुमसम तनहा बैठा होगा...

बहुत ही सरल तरीके से सीधे दिल में उतर जाने वाली बात कहने वाले मुखर कवि जतिंदर 'परवाज़' का नई कलम पर आगाज़ देखिये-

गुमसम तनहा बैठा होगा
सिगरट के कश भरता होगा
उसने खिड़की खोली होगी
और गली में देखा होगा
ज़ोर से मेरा दिल धड़का है
उस ने मुझ को सोचा होगा
सच बतलाना कैसा है वो
तुम ने उस को देखा होगा
मैं तो हँसना भूल गया हूँ
वो भी शायद रोता होगा
ठंडी रात में आग जला कर
मेरा रास्ता तकता होगा
अपने घर की छत पे बेठा
शायद तारे गिनता होगा.

जतिंदर 'परवाज़'

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो....

काव्य जगत के अनुभवी एवं हमारे मार्गदर्शक कवि 'खलिश' जी की एक रचना जो वास्तव में जीवन दर्शन है...

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो
जो अपना हो नहीं सकता उसे अपना बनाते हो

ये नश्वर देह नित्य है मगर देही है अनित्य
भला क्यों भेद देह और देही का तुम भूल जाते हो

जहाँ से आये थे वापस वहीं पर लौट जाना है
यहीं रह जायेगा सब कुछ यहाँ जो भी कमाते हो

कोई परलोक की दौलत अभी तक जोड़ न पाये
यहाँ की दौलतों को देख ना फूले समाते हो

कभी भी ध्यान-सिमरन में लगाया मन नहीं अपना
खलिश यम पाश को क्यों देख कर अब छटपटाते हो.

नित्य = जो नित्य उगे-अस्त हो, जन्मे-मरे, परिवर्तनशील हो
अनित्य = जो सदा-स्थायी, अपरिवर्तनशील हो
देह = शरीर
देही = देह का स्वामी; देह को धारण करने वाला; आत्मा

- महेश चन्द्र गुप्त खलिश

अगर कुछ शेष होगा तो वो होगा हमारा प्रेम..

जीवन के रंगों और सपनों को एक पन्ने में समेटने की गार्गी जी की एक सफल कोशिश......

वक्त का पहिया चलता जाता
नये - नये ये रूप दिखता
हर पल एक सीख दे जाता
की हमको है बस चलते जाना
बचपन छोड युवा बन जाऊ
चाहत थी कोई अपना पाऊ
मन में उनका अरमान लिये
आंखो में एक सपना लिये
चली जा रही थी कोमल मन अपना लिये
दौडती भागती ज़िन्दगी में
वो मिल गये हमे
आराम की ठंडी सांस की तरह
सांसो से साँसे मिली
और वो दिल के मेहमा हुए
बिना कोई किराया- भाड़ा दिये
कह दिया दिल ने दिल से
सुनो हम तुम्हारे हुए
सपनो में कल तक जो साथ था
अब मेरी उंगली थामे चलने लगा
ऐसा लगा खोया सा कोई
ख्वाब सच होने लगा
वो मुझ में और मैं
उन में खोने लगी
वक्त फिर कुछ और भी महरबा हुआ
और न जाने कब उनका मन मेरा हुआ
आंखो ही आंखो में दुनिया सजी
और दिल एक दूसरे का बसेरा हुआ
चल पड़ी मेरी नैया प्यार की लहर पर
वो इस नैया का खिव्या हुआ
हर दिन मेरा उत्सब और रात मयखाना हुआ
जैसे हर लम्हे पर उनका ही पहरा हुआ
उसके होठो ने मेरे होठो को छू कर कहा
कि उम्र भरके लिये मैं तेरा हुआ
तुझ में खो कर ही तो घर मेरा
फूलो का बगीचा हुआ
जब उसने अपनी अखियाँ खोली
घर मेरा रोशन हुआ
जब गूंजी उसकी किलकारी
तेरा मेरा सपना हमारा हुआ
उसने हंस कर भर दी हमारी झोली
तभी तो हमारा प्यार पूरा हुआ
उसका सपना ही अब हमारा सपना हुआ
देखते ही देखते अपना दुलारा
किसी और का साजना हुआ
हंस - रो कर जी लिया हर पल
प्यार नही , पर अब शरीर बूढ़ा हुआ
पर तेरा प्यार दिन -दिन
और भी गहरा हुआ
जब छोटू का छोटू
चश्मे से तेरे खेला किया
फिर मेरा हास के कहना
अब तो तू बूढा हुआ
आँख भर आई मेरे
जब मेरा पल्लु पकड़ भर
तेरा यू कहना हुआ
खुशी है की तेरे साथ में बूढा हुआ
हम हमेशा साथ होंगे मेरा फिर कहना हुआ
और फैल गया हमारा प्यार
एक अविरल धार-सा हर तरफ
वक्त की आँधी चली और तुफा आ गया
तेरे कंधे पर साज कर
ये तन मेरा इस दुनिया से रुख्सत हुआ
और इस मिट्टी का मिट्टी में ही मिलना हुआ
जब तू रोया फूट कर तो आत्मा चिल्ला उठी
मैं दूर नही हूँ तुमसे
मिट्टी थी मिट्टी में मिल गई
पर मन और आत्मा का तुम से ही संगम हुआ
और जब तुम अकेला होते हो उस आराम कुर्सी पर
मैं देखती हूँ तुम्हे, और तुम भी तो महसूस करते हो
जब ढूंढते हो खुद में ही
और दीवारो से मेरे बातैं करते हो
तो ये पीड़ा मुझ से सही नही जाती
तुम से मिलने को तड़प उठती है मेरे रुह
तब में खुद से वादा करती हूँ
हर जन्म तेरे ही पत्नी बनने का इरादा रखती हूँ
जब मिलैगे साँवरे के द्वार पर हम
तब रुह की रुह से मुलाकात होगी
और हमारे लौकिक नही अलोकिक प्रेम की शुरुआत होगी
और वहाँ मृत्यु का बंधन नही होगा
वहा अमित अमर प्रेम होगा .....
बस प्रेम....हमारा प्रेम
और ये वक्त जिसने हमे मिलाया
हमे दूर करने में लाचार होगा
अगर कुछ शेष होगा तो वो होगा हमारा प्रेम

गार्गी गुप्ता

Monday, August 17, 2009

नया नहीं बन पाया तो...

नया नहीं बन पाया तो सम्बन्ध पुराना बना रहे,
आखिर जीने की खातिर कोई बहाना बना रहे,
सच कहती हूँ कभी नहीं मैं तुमसे कुछ भी चाहूँगी,
बस बेगानी बस्ती में इक ठौर ठिकाना बना रहे.
सहन कभी क्या कर पायेगी मेरे दिल की आहट यह,
तुम बेगाने हो जाओ, गुलशन गुलज़ार ये बना रहे.
सुबह देर से आँखें खोलीं मैंने केवल इसीलिए,
बहुत देर तक इन आँखों में, इक ख्वाब सुहाना बना रहे.

'बीती ख़ुशी'

दो कवितायें

मन चंचल गगन पखेरू है,
मैं किससे बाँधता किसको.
मैं क्यों इतना अधूरा हूँ,
की किससे चाह है मुझको.
वो बस हालात ऐसे थे,
कि बुरा मैं बन नहीं पाया.
मैं फ़रिश्ता हूँ नहीं पगली,
कोई समझाए तो इसको.
ज़माने की हवा है ये,
ये रूहानी नहीं साया.
मगर ताबीज़ ला दो तुम,
तसल्ली गर मिले तुमको.
उसे लम्हे डराते हैं,
कल की गम की रातों के,
है सूरज हर घड़ी देता,
ख़ुशी की रौशनी जिसको.

कि मैं तो तब भी पागल था,
कि समझा नहीं था जब
हमारे दिल कि हलचल को,
कि जब मैं पढ़ न पाया था
निगाहों की किताबों में,
हसरत-ए-मोहब्बत को,
तब तुमने ही आके तो
पागल मुझे नवाजा था.

कि मैं तो तब भी पागल था
कि जब था इश्क को समझा,
ज़माने को भुलाया फिर
मैं खुद को भी भुला बैठा,
सभी दुनिया ने मिल के तब
दीवाना पागल कह डाला.

कि मैं तो अब भी पागल हूँ,
तेरा दामन रहा थामे
मैं पूरे जोर से कसके,
मगर खोना पड़ा तुमको
बुरे हालात में फँस के,
क्या अब तो खुद को ही मैंने
पागल सच में बना डाला.
अब इक बात का इतना
ज़रा इन्साफ कर जाओ,
कि पागल कब मैं ज्यादा था?
सिर्फ इतना बता जाओ.

दीपक 'मशाल'

क्षणिकाएं

जमीं से आसमां बहुत दूर है,
फिर मिलते से नज़र आते क्यों हैं,
जब गिराने ही होते हैं मुकीमों को वो सारे मकाम,
तो आसमां से मिलते मंजरों को बनाते क्यों हैं?

अपने आप को खुद से छिपाए बैठे हैं,
हम तो दर्द को भी दिल में दबाये बैठे हैं.
जो अपने दर्द से प्यार किया हमने
तो लोग कहते हैं,
हम किसी और से दिल लगाये बैठे हैं.

नफरत हमें छू न सकी,
प्यार को हम सम्हाल न सके.
इक तुम्हारे बिछड़ जाने के डर से,
हम हकीकत बयां कर न सके.
मैंने अपनों को सिर्फ दोस्त समझा,
वो जाने क्या क्या समझ बैठे.
इसमें मेरी खता क्या है ऐ मालिक,
जो हम दोस्ती को खुदा समझ बैठे.

- तमन्ना

Sunday, August 9, 2009

ग़ज़ल

लहू पहाड़ के दिल का, नदी में शामिल है,
तुम्हारा दर्द हमारी ख़ुशी में शामिल है.
तुम अपना दर्द अलग से दिखा न पाओगे,
तेरा जो दर्द है वो मुझी में शामिल है.

गुजरे लम्हों को मैं अक्सर ढूँढती मिल जाऊँगी,
जिस्म से भी मैं तुम्हे अक्सर जुदा मिल जाऊँगी.
दूर कितनी भी रहूँ, खोलोगे जब भी आँख तुम,
मैं सिरहाने पर तुम्हारे जागती मिल जाऊँगी.
घर के बाहर जब कदम रखोगे अपना एक भी,
बनके मैं तुमको तुम्हारा रास्ता मिल जाऊँगी.
मुझपे मौसम कोई भी गुज़रे ज़रा भी डर नहीं,
खुश्क टहनी पर भी तुमको मैं हरी मिल जाऊँगी.
तुम ख्यालों में सही आवाज़ देके देखना,
घर के बाहर मैं तुम्हें आती हुई मिल जाऊँगी.
गर तसब्बुर भी मेरे इक शेर का तुमने किया,
सुबह घर कि दीवारों पर लिखी हुई मिल जाऊँगी.

'बीती ख़ुशी'

Saturday, August 8, 2009

सिमटता आदमी


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दिन -ब-दिन इंसान सिमटता जा रहा है ,उसने अपने आपको दायरों में बाँध लिया है। उसे पूरी दुनिया की तो ख़बर है मगर अपने पडोसी की परेशानी का अहसास नहीं। वो सब कुछ एक स्क्रीन पर पा लेना चाहता है। सब कुछ भ्रम और सिर्फ़ भ्रम जहाँ भरम लफ्ज़ के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं। ऐसी ही एक रचना अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है -
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी0 वी0 चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
दरवाजे पर है
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काॅलबेल की हर आवाज पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
-->दरवाजे पर आकर।
-->
-->

-->-आकांक्षा यादव