Monday, June 22, 2009

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझको
- क़तील

यूँ तो मैं एक लंबे अरसे से तुम्हें कुछ लिखना चाहता था। मगर सब कुछ ऐसा होता रहा और मैं लिखने का वक्त ही नहीं निकल पाया। आज ख़त की शक्ल में पहला पन्ना सौंप रहा हूँ... मेरा मानना है जब दो मुहब्बत करने वालों के दरमियाँ ख़त की अदला - बदली न हो तो प्यार अधूरा है..... और मैं कभी नहीं चाहूँगा की मेरा प्यार अधूरा हो।

यार सोचो तो जरा ज़िन्दगी भी क्या खूब मकाम दिखाती है। आदमी हँसना चाहे नहीं हंस सकता , रोना चाहे रो भी नहीं सकता , यहाँ तक की मरना चाहे मर भी नहीं सकता ....... आज सोचता हूँ अपना पूरा दिल, पूरी तकलीफ इन पन्नों पे उडेल दूँ ...... और इन लफ्जों की ताकत इनका असर तुम्हारे लहू के कतरे - कतरे में फ़ैल जाए।

बेट्टा, यकीन करो , मेरे ख्यालों में जो तस्वीर थी, जो सूरत थी, जो सीरत थी, तुम हू -बा-हू वही हो... वही मासूमियत , वही चेहरा ,वही दिल वही ख्याल , वही पागलपन , वही ज़िन्दगी, वही बंदगी, वही आरजू ,वही तमन्ना बस वही तुम हाँ वही तुम..........

आज जब ख़त लिख रहा हूँ -तो अफ़सोस ही अफ़सोस। मैंने अब लिखा तो क्या लिखा , सच बताऊँ तो हम दोनों ने अपने मुहब्बत के सफर में खुशियाँ देखी ही नहीं। बेट्टा, तुम सरापा दर्द हो दर्द ... तुम्हारे सीने का दर्द तो लफ्जों में बयां किया ही नहीं जा सकता .... शब्द कहीं ठहरते ही नहीं तुम्हारे ग़म के आगे ....
मैं अल्लाह तआला से बारहा गुजारिश करूँगा की जो फिक्र पहले दिन स्टेशन पर तुम्हारी आंखों में थी , वही हमेशा आखिरी साँस तक रहेवो तुम्हारे शहर के स्टेशन पर एक जगह तलाश कर टायरों पे बैठ के मुझे ,लोहे कुरानी, सफर की दुआ थमाना ... वो साफ़ शफ्फाफ दिल जो फिक्र से मामूर थाऔर फ़िर वक्त के साथ उसमें मुहब्बत घुलती चली गयी

कोई इस तरह से भी मुझे अपना बना सकता है कभी सोचा ही नहींकिसी के एक इशारे पे मैं कुछ भी कर सकता हूँ, कोई मेरे एक इशारे पे हदों को पार कर सकती है- कौन जनता था ?

तुम्हारे घर के आसपास के एरिया में एक खिंचाव है , इन फिजाओं में मुहब्बत घोली गयी हैहवा में मुहब्बत की खुशबुएँ हैंजो यहाँ आए वो यहाँ का होके रहना चाहेगाइन फिजाओं को महसूस करना चाहेगा

कोई मुझे मुहब्बत के बाहुपाश में ऐसे पकड़ लेगा - मेरा दिल कभी नहीं जानता थामैं किसी के कहने पर अपना शहर छोड़कर तुम्हारे शहर आऊंगाआह - क्या मुहब्बत, यहाँ बसने तक आते -आते एक पागलपन भी इसमें शामिल हो गया....... उन आंखों की चमक , उस चेहरे की मुस्कराहट आज भी मेरे दिलो दिमाग पे जिंदा है

जो
उस दिन तुम्हारे होठों , तुम्हारे आरिज, तुम्हारी बोलती हुई आंखों पर थी..... जिस दिन तुम जाने कौन से हक़ से मेरे लिए रोजमर्रा की चीजें लेके आयी थी..... उस खुबसूरत जगह से जाने के बाद हमारी जो फोन पे बातें हुईं तुम्हें याद होंगी ....तुम उस दिन वाकई खुश थी - तुम को लग रहा था मैं आगे बढ़ रहा हूँ - तुम्हारे संग
तुम्हें वो सब कुछ नज़र रहा था जो हम दोनों ने कभी ख्यालों में बातें की थीउन्हें एक मंजिल मिलती नज़र रही थी ....एक सफर आगे बढ़ रहा थाकिसी का प्यार दूर कहीं आसमानों में एक बिजली की तरह चमका था

और जब वो बिजली चमक ही चुकी थीतो हम दोनों भी एक नई दुनिया की ज़िन्दगी में क़दम रखने लगे जाने खुदा की किस काम में क्या मर्जी है- वो हमसे क्यूँ क्या करा रहा होता है ..... यहाँ हम दोनों बड़े खुश थे उस शामजाहिर सी बात थी हम दोनों साथ होने की एक बार फ़िर बाँतें करने लगेतुमको भी लगा कोशिश तो की जाए ..... एक बार ज़माने को बताया तो जाए की हाँ हमें मुहब्बत है

मगर
अफ़सोस- सद अफ़सोस रात गहरी होते -होते खुशियों की ये कड़ी टूट गयी - हम तो बिखरे ही मेरी बेट्टा भी बिखर गयीऔर उस दिन से आज तक हम दोनों उन बिखरे हुए ख्वाबों की किरचियाँ समेट रहे हैं
जारी है-
- शाहिद अजनबी




Thursday, June 18, 2009

इक तवक्को

ये शाम के धुंधलके
और मुहब्बत के साये
हलकी- हलकी गहराती
ये खुबसूरत रात

छत की मुंडेर पे बैठी
मुहब्बत से लबरेज
वो मासूम सी
दुपट्टे को उमेठ्ती लड़की

सीने में इक खलिश लिए
आंखों में इक गहरा इंतजार
होठों पे बेवजह मुस्कराहट
ज़िन्दगी ने करवट बदली
यादों का दिया मचलने लगा

घर की दहलीज , सफर के रास्ते
ट्रेन की धडधड , फेरी
वालों की आवाजें
और किले की दीवारें
ना जाने कब पहुँच गई वो यहाँ

ख़ुद उसको ख़बर नहीं
वो मायूस शाम
रात की शुआओं में तब्दील हो गयी

और आँखें अब भी मुन्तजिर
इस तवक्को पे टिकी हुई
आरिज पे ढलके आंसुओं को
आएगा महबूब हथेली से समेटने ।

- शाहिद अजनबी

Monday, June 15, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल जिस अंदाज के लिए जानी जाती है आज "नई क़लम "के पाठकों को ऐसी ही एक उर्दू ग़ज़ल सौंप रहा हूँग़ज़ल का लुत्फ़ लें और अपनी राय भी दर्ज करें ताकि आने वाले कल में आप को एक ऊंचे मेयार के अदब से रूबरू कराया जा सके

नहीं होगा असर उन पर कभी आंसू बहाने से
ये शामे ग़म भी ढलती है कहीं दिल के जलाने से

हुजूमे ग़म से घबराकर तू दिल आह भरना
तुझे हँस कर उठाना है अताए ग़म जमाने से

तेरी काफिर निगाहें भी मुजस्सिम हैं क़यामत की
ये बाज़ आए नहीं हुस्ने बुताँ बिजली गिराने से


मैं बादा कश नहीं यारो मगर ये कैफ छाया है
ग़मे जानाँ को दिलबर दिलनशीं अपना बनाने से

करम फरमा याँ तौबा सुरुरे चश्मे जानाँ की
बहक जाएँ हम साक़ी कहीं मय के पिलाने से

"जलील" ऐसी ग़ज़ल छेड़ो की वो मजबूर हो जाएँ
सुना है वो नहीं आए सरे महफ़िल जमाने से

- अब्दुल जलील

Saturday, June 13, 2009

मुझसे पूँछेगा खुदा


मुझसे पूँछेगा खुदा,

क्या किया तुमने

जमीं पे जाके,

आदमी का तन पाके।

मैं तुझमे ढूंढता रहा

जगह अपनी,

और तू खुश था,

मुझे पत्थरों में ठहरा के।

अपनी सिसकियों के शोरों में,

आह औरों की

ना सुन पाए,

सपने बुने तो सतरंगी मगर,

अपने लिए ही बुन पाए।

जो लिया सबसे

तुम्हे याद नहीं

और देके थोड़े का हिसाब,

भूल नहीं पाए।

क्या करुँ मैं

बना के वो इन्सां,

काम इन्सां के जो,

कर नहीं पाए।

मैंने चाहा था,

तुम लिखो नसीब दुनिया का,

तुम रहे बैठे,

दोष अपने नसीब को लगा के।

याद मुझको तो किया,

किया मगर घबरा के।

बाँट के मुझको कई नामों में,

लौट आये हो ज़हर फैला के।


दीपक 'मशाल'

Thursday, June 4, 2009

दर्द से हाथ न मिलाते तो क्या करते



दर्द से हाथ न मिलाते तो क्या करते,

गम के आँसू न बहाते तो क्या करते,

किसी ने माँगी थी हमसे रोशनी,

हम खुद को न जलाते तो क्या करते ? ?


मेरे दिल के ज़ख्म अब आह नही भरते,

क्योंकि वो अब इस दिल में रहा नही करते,

हमने आँसू से उनको विदाई दी है

इन आँखों में अब अश्क रहा नही करते! ! !


तुझे आँसू भरी वो दुआ मिले

जिसे कभी न इन्कार ख़ुदा करे,

तुझे हसरत न रहे कभी जन्नत की

तेरे आंगन में मोहब्बतों की ऐसी हवा चले…


चले गये हो दूर कुछ पल के लिये,

दूर रहकर भी करीब हो हर पल के लिये,

कैसे याद न आए आपकी एक पल के लिये,

जब दिल में हो आप हर पल के लिये…

- गार्गी गुप्ता

"वक़्त की लाचारी"


हाँ वो लाचार वक़्त हूँ मैं

छटपटाता हुआ बदहवास सा

ठहरा हूँ मै तब से

दो दिलो के वादों का

साक्ष्य बना था जब से

व्याकुल हो विरह में

अश्कों डुबे सिसकते

एक दिल न कहा था

" जब अंत समय आये और

ये सांसे बोझ बन जाये

एक बार मुझसे कह देना

मै भी साथ चलूँगा ..."
उस रिश्ते पर मेरा ही

कफ़न पड़ गया शायद

अब मै गुजर जाना चाहता हूँ

मुक्त हो जाना चाहता हूँ
साक्ष्य के उस बोझ से

काश मेरे सीने से कोई

उस लम्हे के अंश को

चीर के जुदा कर दे

हाँ वही लाचार वक़्त हूँ मै .....


- सीमा गुप्ता