Tuesday, May 26, 2009
मोक्ष
परिक्रमा
करते थे प्रश्न,
अँधेरे मन के
कोटर के,
उत्तर कोई निकले सार्थक,
जिसको
हथिया के प्राप्त करुँ,
विचलित ह्रदय
संतृप्त करुँ।
किस राह को
मैं पा जाऊँ?
किसपे
कर विश्वास चला जाऊँ?
किसको भरूँ,
अंक में मैं,
जीवन-दर्शन या जग-पीड़ा?
करुँ नर-सेवा या
नारायण?
बनूँ किसका कर्त्तव्य-परायण?
चलूँ पथ
मोक्ष प्राप्ति का मैं,
या पीड़ा दीनों की हरूँ हरी?
गुँथा हुआ मैं
ग्रंथि में,
था अंतर्मन टटोल रहा बैठा।
सहसा घिर आये मेघा
आबनूस रंग चढ़े हुए,
गरजे,
बरसे,
कौंधी बिजली,
मुझे वज्र इन्द्र का याद हुआ,
त्याग दधीचि का सार हुआ।
तब ज्ञान हुआ जो
करनी का,
जीते जी मोक्ष प्राप्त हुआ।
दीपक 'मशाल'
Monday, May 18, 2009
ग़ज़ल
दोस्तों आज दिन है आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया अदा करने का, क्योंकि आज से ठीक एक साल पहले आप सभी के मजबूत कन्धों और हौसलों की मदद से हमने और आपने मिलकर 'नई कलम -उभरते हस्ताक्षर की नींव डाली थी।
देखिये न देखते ही देखते हमारे ब्लॉग को प्रारम्भ हुए पूरा एक वर्ष बीत गया, कितनी खट्टी मीठी यादों के साथ और नज़्म, ग़ज़ल, कविता, कहानी पढ़ते हुए हमने मिलके ये सफर तय किया है। पूरा भरोसा है की आप लोगों के प्यार के आँचल में, आने वाले समय में ये ब्लॉग फलता फूलता रहेगा और नई कलमों को विशाल वृक्षों का रूप देता रहेगा.
इसी श्रृंख्ला में आलोक 'नज़र' जी की एक खूबसूरत ग़ज़ल आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ।
धन्यवाद्
ये आंसुओ से तर हो सकते हैं
रिश्ते और बेहतर हो सकते हैं
चंद सांसे अभी भी बाकी हैं
मेरे नुख्से कारगर हो सकते हैं
हमें अब तक यकीं नहीं आया
वो भी सितमगर हो सकते हैं
ये वक़्त का एक फलसफा है
फूल भी पत्थर हो सकते हैं
नुकसान की तो बात न करो
ये जनाब जानवर हो सकते हैं
दरख्त सूखने लगे अचानक
कई परिंदे बेघर हो सकते हैं
इस तरह मुलाक़ात की उसने
ये चर्चे उम्र भर हो सकते हैं
अपने घर में कभी न सोचा
हम भी बेक़दर हो सकते हैं
बात यकीं पे आके रुकती है
सायेबां सूखे शजर हो सकते हैं
कैफ़ियत यूँ ठीक नहीं अपनी
तीर-ए-नज़र बेअसर हो सकते हैं
आलोक उपाध्याय 'नज़र इलाहाबादी'
Saturday, May 9, 2009
जीना चाहते हैं वह मर कर।
खून और चीत्कार का जिसने,
बचपन की मुस्कान है जीवन,
Friday, May 8, 2009
Tuesday, May 5, 2009
~एक समसामयिक राजनीतिक व्यंग्य~
दीपक 'मशाल'
Monday, May 4, 2009
इसी को कहते हैं
तुम से मिल कर ही समझ पाये, कि धोखा किसे कहते हैं।
हर घड़ी है सवालों की कशमकश, कि तुम्हारी इस अदा को क्या कहते है।।
रोते-हँसते कट जायेगी ज़िन्दगी, पर हर साँस के साथ बेवफा तुम्हें कहते हैं।
हर दम दे जाता है नया गम, क्या सच में प्यार इसी को कहते हैं।
जब भी चाही खुशी रुस्बाई मिली, क्या किस्मत इसी को कहते हैं॥
इसे क्या कहते हैं....
ग़ज़ल
न कौम की बात करते हैं, न अमन को मुद्दा बनाते हैं,
हम होली में रंग खेलते हैं, ईद की खुशिया मनाते हैं।
हमारे शहर में सर के बोझ जैसा कुछ भी तो नहीं,
हमारे हाथ पत्थर भी तोड़ें, तो ये लब मुस्कुराते हैं।
यकीनन हम भी थकते हैं, इस जिंदगी की दौड़ में
ऐसे हालत होते हैं तो हम चाँद को छत पे बुलाते है.
किसी के नाम से हमको कोई सरोकार नहीं रहता,
किसी को दोस्त कह लेते हैं किसी को चाचा बुलाते हैं।
हमारे जज़्बात कितने मासूम है यहाँ आके देखिये,
रुक रुक के हाल चाल ये लेना आदत है अपनी,
एक दूसरे को हम यहाँ अपनी याद दिलाते हैं।
"जूनून इलाहाबादी "